‘ज्ञान’ विनाश का कारण भी बन सकता है?

एक ज्ञान वह है जो मन द्वारा इंद्रियों के सहयोग से प्राप्त किया जाता है!यह बाहरी संसार का ज्ञान है! यह भौतिक ज्ञान है! इसमें ज्ञाता और ज्ञेय के बीच में दूरी बनी रहती है!इसमें ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेद बना रहता है!इस ज्ञान की प्राप्ति के विभिन्न पक्षों पर वेद,ब्राह्मण,धर्मसूत्र,स्मृति ग्रंथों, रामायण,महाभारत, मीमांसासूत्र,वैशेषिक सूत्र, न्यायसूत्र, चार्वाक सूत्र, सुश्रुतसूत्र,चरकसूत्र सहित विभिन्न विचारधाराओं की हजारों पुस्तकों का प्रचूर भंडार मौजूद है!यह ज्ञान हमारे भौतिक जीवन को समृद्धि प्रदान करता है!

लेकिन एक ज्ञान वह होता है जिसमें ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी नहीं बचती है!यह ज्ञाता का ज्ञान है! यह जानने वाले को जानना है! इसमें ज्ञाता और ज्ञेय के बीच में दूरी नहीं होती है! इसे स्वरुपस्थिति भी कहते हैं,आत्मज्ञान भी कहते हैं! आत्मसाक्षात्कार भी कहते हैं तथा स्वज्ञान भी कहते हैं!इस ज्ञान को अनुभूत करने के माध्यम को वेद कहते हैं,समाधि कहते हैं,योगाभ्यास कहते हैं,योग- साधना कहते हैं, उपनिषद् कहते हैं तथा तंत्र कहते हैं!सृष्टि में लाखों वर्षों से इस प्रायोगिक ज्ञान की अनुभूति करने के लिये वेद, ब्राह्मण,आरण्यक, उपनिषद्,ब्रह्मसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र,अष्टावक्र गीता, श्रीमद्भगवद्गीता,तंत्रसूत्र, भक्तिसूत्र, विज्ञानभैरव,गोरक्ष संहिता, हठयोग प्रदीपिका,घेरंड संहिता, योगवाशिष्ठ,योगाचार, जिन सूत्र, आदि ग्रंथ तथा इनकी व्याख्यास्वरुप हजारों ग्रंथ आज भी विद्यमान हैं! इस विद्या के लाखों महत्वपूर्ण ग्रंथ विदेशी हमलावरों के हमलों में नष्ट होकर काल के गाल में नष्ट हो चुके हैं!भारत पिछली दो सदियों के दौरान तथा आज भी इस योगविद्या को माध्यम बनाकर स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद,परमहंस योगानन्द,स्वामी योगेश्वरानंद,जिद्दू कृष्णमूर्ति,स्वामी सत्यानंद,राधास्वामी, आचार्य रजनीश, श्री श्री रविशंकर,सद्गुरु वासुदेव,श्री गोयनका, स्वामी राम,स्वामी रामदेव आदि जैसे सैकड़ों गुरु कार्य करते आ रहे हैं! कोई कुछ भी कहे लेकिन यह सच है कि इनमें आचार्य रजनीश ने इस योग विद्या तथा इसकी सैकड़ों विधियों पर सर्वाधिक काम किया है!योगविद्या के महत्वपूर्ण ग्रंथों योगसूत्र,श्रीमद्भगवद्गीता, अष्टावक्र गीता,तंत्रसूत्र पर आचार्य रजनीश की व्याख्याएं विश्व योगविद्या साहित्य की श्रेष्ठतम रचनाएं हैं!

उपरोक्त दोनों प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति को आज से हजारों वर्षों पहले महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक सूत्र में ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयशसिद्वि स धर्म: ‘ कहकर बतलाया है! यानि धर्म वह है जिसकी मदद से भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में संपूर्णता की प्राप्ति हो सके! इसमें संसार के बाहरी और भीतरी, भौतिक और आध्यात्मिक स्थूल और सूक्ष्म आदि सभी पक्ष परिपूर्णता प्राप्त करते हैं!

लेकिन अब प्रश्न यह है कि क्या आज यह ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य पूरा हो रहा है? आध्यात्मिक ज्ञान की समृद्ध परंपरा हमारे पास मौजूद है! विज्ञान ने भी भौतिक संसार में आश्चर्यजनक तरक्की की हुई है! लेकिन क्या आज के संसार ने भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का लाभ उठाकर हमारे जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों को समृद्धि, खुशहाली,परिपूर्णता, समता, न्याय, नीति, सहयोग, सौहार्द, रोजगार,उदरपूर्ति आदि को स्थापित किया है? 140 करोड़ की भारत की आबादी सहित संसार की 800 करोड़ की आबादी की आज की बदहाल,बदनाम, अमानवीय, बेरोजगार,बिमार,हताश, चिंतित,आवासहीन, भयभीत, भूखमरी,हिंसक,शोषक,लूटखसोट, भ्रष्टाचार,नरसंहार, युद्धपिपासु की कहानी तो कुछ और ही कह रही है! यह तो कह रही है कि संसार ने बाहरी और भीतरी ज्ञान से लाभ की बजाय हानि,समृद्धि के बजाय बर्बादी, सृजन के बजाय विनाश को ही आमंत्रित किया है!

विज्ञान और अध्यात्म जगत् के लोग जिस तरह से इस संसार को अपने बाहरी और भीतरी ज्ञान के बल पर लूट रहे हैं, शीघ्र विनाश होने से कोई रोक नहीं पायेगा! विज्ञान के क्षेत्र में आज जो विचारना काम कर रही है, वह युनानी विचारकों सोफिस्ट, सुकरात, प्लेटो, अरस्तू,बुद्धिवादी देकार्त- स्पिनोज़ा- लाईबनित्स, अनुभववादी लाक- बर्कले- ह्यूम,समीक्षावादी कांट,उपयोगितावादी बैंथम और मिल,भौतिकवादी मार्क्स, अस्तित्ववादी नीत्शे -हाईडेगर-कामू -मार्सेल,ईसाईयत विस्तारवादी जोंस- कार्नवालिस-मैकाले- मैक्समूलर, मनोविज्ञान वादी फ्रायड -एडलर- जुंग तथा पुरुष विरोधी नारीवादी विचारकों की सोच पर काम कर रही है!

आजकल के तथाकथित पढ़े -लिखे कहे जाने वाले कुछ वो लोग जिनके पास प्रसिद्धि का कोई जरिया नहीं बचा है, वो तो यहाँ तक कहते हैं कि आध्यात्मिक जगत् के श्रीराम, श्रीकृष्ण, व्यास, पतंजलि, अष्टावक्र, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, दयानंद, कृष्णमूर्ति, रजनीश जैसे लोग विविध प्रकार की मानसिक बिमारियों से ग्रस्त लोग थे!तो दूसरी तरफ आध्यात्मिक जगत् के लोग विभिन्न प्रसिद्ध भौतिकविज्ञानियों को पागलपन से ग्रस्त कहते हैं! क्यों? क्योंकि इन्होंने भौतिक पदार्थ पर आश्चर्यजनक खोजें करके उन्हें हिटलर, स्टालिन,ख्रूश्चैव ,माओ, चर्चिल, रूजवेल्ट,क्लिंटन,रीगन, प्रभाकरण,बिन लादेन, हमास, हिजबुल्ला तथा लूटेरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में सौंप दिया है!इन चमत्कारी खोजों की मदद से इन्होंने पिछले 150 वर्षों के दौरान करोड़ों लोगों की निर्मम हत्याएं की हैं! करोड़ों बच्चों को मौत के घाट उतार दिया है! करोड़ों लडकियों से बलात्कार किया है! अकाल की विभिषिका पैदा करके करोड़ों लोगों को भूख और प्यास मे तडपते हुये मरने को मजबूर कर दिया है! विनाशकारी दवाओं के जरिये अनेक महामारियों को जन्म देकर अपनी जेबों को भरा है तथा बिमारियों को ठीक करने की बजाय पूरी धरती को ही नष्ट करने की योजना पर काम किया जा रहा है! इसके साथ-साथ फसल, बीज,पैस्टीसाईड, मांस खाद्य सामग्री, जैविक हथियारों, बारुद हथियारों, परमाणु हथियारों ,एआई, कंप्यूटर जैसे क्षेत्रों में अंधाधुंध तरक्की ने जड-चेतन जगत् को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है! ऐसे में पता नहीं पागल किसे कहा जाये? पागलखानों में भर्ती किये गये मानसिक रोगियों को पागल कहा जाये या फिर पूरी धरती को कई बार बर्बाद करने के सारे जुगाड़ कर देने वाले भौतिकविज्ञानियों, नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को पागल कहा जाये?

आज हमारी धरती की हालत यह हो गई है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश धर्माचार्य, सद्गुरु,योगाचार्य,योगी लोग जनमानस को सही योग -साधना का प्रायोगिक ज्ञान देने की बजाय अपना व्यापार चला रहे हैं! इनमें से अधिकांश लोगों को योगसाधना की प्रायोगिक अनुभूति है ही नहीं! बस,योगसाधना के थोथे प्रवचन पिला रहे हैं! इसीलिये जनमानस के जीवन में कोई सृजनात्मक परिणाम दिखाई नहीं दे रहा है! जनमानस योग जगत् के इन नकली और नक्सली योगाचार्यों के चंगुल में फंसकर जहाँ अपने धन और समय को बर्बाद करता है, वही पर अपनी बुद्धि को भी कुंठित करके अंधभक्त बनकर रह जाता है! ऐसे व्यक्तिपूजक अंधभक्त लोग संसार में अनेक प्रकार के वैमनस्य, झगड़े, फसाद और हिंसा का कारण बन रहे हैं!

कहने का आशय यह है कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान आज संसार के लिये वरदान की बजाय अभिशाप बन गया है! तथाकथित विकास में यह धरती इतनी आगे जा चुकी है कि वहाँ से वापस लौटना असंभव है!लगता है कि आज ज्ञानी होना मूढता और बर्बादी का पर्याय बन गया है!

कहने का आशय यह है कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान आज संसार के लिये वरदान की बजाय अभिशाप बन गया है! तथाकथित विकास में यह धरती इतनी आगे जा चुकी है कि वहाँ से वापस लौटना असंभव है!लगता है कि आज ज्ञानी होना मूढता और बर्बादी का पर्याय बन गया है!

आचार्य शीलक राम

दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119